बनाकर तेरी आखों को आईना नही देखा
मुद्दतों हुई हमने अपना चेहरा नहीं देखा
बहुत दिनो से यह मैदान खाली पडा है
कई बरसों से यहाँ मेला लगता नही देखा
शायद मौसम भी खफा है ज़माने से,तभी
बादलों को झूम कर बरसता नहीं देखा
न अब वो पीने वाले हैं औ न पिलाने वाले
महफ़िल मे किसी रिंद को झूमता नहीं देखा
रात भर जाग कर सुबह को नींद आती है
कई दिनों से सूरज को उगता नहीं देखा
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------
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