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Sunday, 12 May 2013

जब रात सिसक सिसक के रोती है


 


जब शब्  भर रात सिसकती है
तब  पत्ती पे  ओस  चमकती है

जब  मेहनत  से  गिरे पसीना
मोती  बिन  सीप  निकलती है

लाज का घूंघट ओढ के बैठी
उसकी बेंदी बहुत दमकती है

सर्दी गरमी बसंत और बारिस
मौसम कितने रुप बदलती है

ओढ के चूनर  धानी  हंसती
जमी सजती और संवरती है

मुकेश  इलाहाबादी ................

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