रह रह के धूप छांह आती रही
चिलमन से वह झांक जाती रही
दरिया के साहिल पे बैठा हूं चुप
लहरें आती रहीं और जाती रही
जब जब वक्त ने स्याही फैलायी
हंसी उसकी चॉदनी फैलाती रही
यौवन को चुनर मे छुपाती रही
औ कांटो से दामन बचाती रही
आदत से भलेही शरमीली है वो
गजल पे मेरी मुस्कुराती रही
मुकेश इलाहाबादी ............
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