बिन चॉद सितारों का
आसमॉ देखते हैं
ख्वाब मे भी खुद को
तन्हा देखते हैंछोड़ के गये हो
जब से तुम ये घर
कभी सूना ऑगन
कभी सूनी दालान दालान देखते हैं
कभी अरगनी पे उदास चुनरी
तो कभी खाली आईना देखते हैं
रसोंई मे पडे चुपचाप
बर्तनो को देख्ता हैं
तो कभी बिस्तर पे बिन
सलवटों की चादर देखते हैं
जरा सी आहट हो तो
लगे कि तुम आयी हो
फिर छत पे जा के
सूनी छत से
सड़क पे दूर तक, हम
यहां से वहां तक देखते हैं
जब से छोड के गये हो तुम
हम तुम्हे न जाने कहां कहां
देखते हैं
कभी सूना घर तो कभी सूना
ऑगन देखते है
ख्वाब मे भी आजकल
खुद को तनहा देखते हैं
मुकेश इलाहाबादी ....
No comments:
Post a Comment