दिन दोपहरी या रात नही देखती
अब ऑखें मेरी ख्वाब नही देखती
देह थक के चूर होती है तो नींद
जमीन या टूटी खाट नही देखती
मौत आती है तो आ ही जाती है
मौत धूप या बरसात नही देखती
प्रक्रित जब इंषा से खफा होती है
महल हो या टूटा छप्पर नही देखती
इंषान मेहनत करने पर आये तो
किस्मत हाथ की लकीर नही देखती
मुकेष इलाहाबादी ..............
No comments:
Post a Comment