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Friday, 11 October 2013

जंहा से जंहा तक देखता हूँ




जंहा से जंहा तक देखता हूँ
झूठ  और  फरेब  देखता हूँ

पढ़े लिखे समाज मे भी मै
लकीर के फकीर देखता हूँ

तुम्हारी कजरारी आखों मे
आंसू  की  दो बूँद देखता हूँ

निराशा के गहन गहवर मे 
आशा का इक द्वीप देखता हूँ

मुकेश की गजल मे हरबार
इंकलाबी तहरीर देखता हूँ


मुकेश इलाहाबादी ------------

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