अंधेरा सब कुछ लील गया,
परछांई को भी निगल गया
सफ़रे इंतज़ामात मे रह गया
कारवाँ तब तक निकल गया
फितरत उसकी चाँद सी है
सांझ होते ही खिल गया
कुछ तो खौलन पहले से थी
ज़रा सी आंच पिघल गया
सदियों का जमा हिमखंड था
ज़रा से प्यार में पिघल गया
मुकेश इलाहाबादी ------------
परछांई को भी निगल गया
सफ़रे इंतज़ामात मे रह गया
कारवाँ तब तक निकल गया
फितरत उसकी चाँद सी है
सांझ होते ही खिल गया
कुछ तो खौलन पहले से थी
ज़रा सी आंच पिघल गया
सदियों का जमा हिमखंड था
ज़रा से प्यार में पिघल गया
मुकेश इलाहाबादी ------------
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