जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा तपता हुआ लगे
जाने क्यूँ सब कुछ जलता हुआ लगे
देख कर ख़ाक ही ख़ाक हर सिम्त
आफताब मुँह चिढ़ाता हुआ लगे
देख आँगन मे बिछी पीली चांदनी
फलक पे महताब ढलता हुआ लगे
देख कर दूर तक ये उड़ता गर्दो गुबार
कारवां मुझे छोड़ के बढ़ता हुआ लगे
जब भी तेरा ग़मज़दा चेहरा याद आये
दूर कंही कोई सितारा टूटता हुआ लगे
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
जाने क्यूँ सब कुछ जलता हुआ लगे
देख कर ख़ाक ही ख़ाक हर सिम्त
आफताब मुँह चिढ़ाता हुआ लगे
देख आँगन मे बिछी पीली चांदनी
फलक पे महताब ढलता हुआ लगे
देख कर दूर तक ये उड़ता गर्दो गुबार
कारवां मुझे छोड़ के बढ़ता हुआ लगे
जब भी तेरा ग़मज़दा चेहरा याद आये
दूर कंही कोई सितारा टूटता हुआ लगे
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
No comments:
Post a Comment