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Monday, 3 February 2014

ख़ुदा जब ख़ुद - ब- ख़ुद मेरे सीने में रहता है

ख़ुदा जब ख़ुद - ब- ख़ुद मेरे सीने में रहता है
ज़रुरत क्या मुझे किसी इबादतगाह जाने की

जानता हूँ कि फैसला होगा उसी के हक़ में ,,
ज़रुरत क्या मुझे किसी गवाहों औ सबूतों की

हर सिम्त क़यामत खुद  ब  ख़ुदगुनुनाती है
चुपचाप सुनता हूँ ज़रुरत क्या कुछ गाने की

खुद ब ख़ुद रूठा है  वो खुद ब खुद ही आयेगा
है ज़रुरत क्या है उसे फिर - फिर मानाने की

जब हर शख्श मशरूफ अपने ग़म से ग़ाफ़िल
ज़रुरत क्या किसी को अपना ग़म सुनाने की

चढ़ते हुए सूरज को ही सब सलाम करते हैं
ये हम डूब कर समझे हैं रवायत ज़माने की

न मुरझाया है  न मुरझायेगा गुले - मुहब्बत
ज़रुरत क्या तुम्हे कागज़ी फूल महकाने की

दोस्त रख भरोसा अपने हुनर और कूबत का
ज़रुरत क्या किसी के सामने हिनहिनाने की

सिवाए मुहब्बत के कोई और सुर न पाओगे
मुकेश गालो तुम इसे ये ग़ज़ल है दीवाने की

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

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