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Sunday, 9 February 2014

राह में हमारी कोई तरुवर नहीं है

राह में हमारी कोई तरुवर नहीं है
कोई साथी कोई हमसफ़र नहीं है

हूँ मुसाफिर जिसकी जुस्तज़ू में
मेरे आने की उसको खबर नहीं है

लोग हैं कि मैखाना लिए बैठे हैं,,
यंहा क़तरा ऐ मय मयस्सर नहीं

फ़क़त दश्त है सहरा है तंहाई है
हम फ़क़ीरों के लिए घर नहीं है

मुहब्बत ही मुहब्बत हो जंहा ??
ऐसा कोई गांव या शहर नहीं है

मुकेश इलाहाबादी ---------------

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