मज़बूरियां मेरी खिलखिलाती रहीं
ज़िंदगी बेहया सी मुस्कुराती रही
कभी बादल ख़फ़ा तो कभी सूरज
यूँ मेरे घर धूप -छाँह आती रही
दरिया किनारे भी हम प्यासे रहे
लहरें आ - आ के लौट जाती रहीं
रोशनी से कहा था मेरे घर आओ
हर बार इक बहाना बनाती रही
ग़ज़ल अपनी मै किसको सुनाता
शब् भर तो तन्हाई गुनगुनाती रही
मुकेश इलाहाबादी ------------------
ज़िंदगी बेहया सी मुस्कुराती रही
कभी बादल ख़फ़ा तो कभी सूरज
यूँ मेरे घर धूप -छाँह आती रही
दरिया किनारे भी हम प्यासे रहे
लहरें आ - आ के लौट जाती रहीं
रोशनी से कहा था मेरे घर आओ
हर बार इक बहाना बनाती रही
ग़ज़ल अपनी मै किसको सुनाता
शब् भर तो तन्हाई गुनगुनाती रही
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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