हमसे तो बहुत दूर रहती है वो
रक़ीब के करीब लगती है वो
रक़ीब के करीब लगती है वो
ग़ज़लें मेरी सुन सुन के, एक
मासूम सी हंसी हंसती है वो
मासूम सी हंसी हंसती है वो
यूँ तो वो बातें बहुत करती है
पर फासला इक रखती है वो
पर फासला इक रखती है वो
दिल हमारा जिसपे आया है
मेरे घर के करीब रहती है वो
मेरे घर के करीब रहती है वो
लब भले खामोश हों उसके
आखों से सबकुछ कहती है वो
आखों से सबकुछ कहती है वो
जब से हुई है उसे मुहब्बत सी
जाने क्यूँ चुप चुप रहती है वो
जाने क्यूँ चुप चुप रहती है वो
पूछूंगा इक दिन ज़रूर उससे
संजीदा इतनी क्यूँ रहती है वो
मुकेश इलाहाबादी ---------------
संजीदा इतनी क्यूँ रहती है वो
मुकेश इलाहाबादी ---------------
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