जाने किस बात की सज़ा पा रहा हूँ
राह ऐ ज़िदंगी में तनहा जा रहा हूँ
निकले थे तेरे घर की ज़ानिब मगर
ऎ दोस्त ! ये कंहा से कंहा जा रहा हूँ
दिले जज़्बात का दरिया लिए हुए
रौ में मै अपनी ही बहा जा रहा हूँ
तुम तक मेरी आवाज़ न पहुंचेगी
फिर भी तुम्हे पुकारे जा रहा हूँ
हर शख्श अपनी धुन में मस्त है
और मै अपनी ग़ज़ल गा रहा हूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------
राह ऐ ज़िदंगी में तनहा जा रहा हूँ
निकले थे तेरे घर की ज़ानिब मगर
ऎ दोस्त ! ये कंहा से कंहा जा रहा हूँ
दिले जज़्बात का दरिया लिए हुए
रौ में मै अपनी ही बहा जा रहा हूँ
तुम तक मेरी आवाज़ न पहुंचेगी
फिर भी तुम्हे पुकारे जा रहा हूँ
हर शख्श अपनी धुन में मस्त है
और मै अपनी ग़ज़ल गा रहा हूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------
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