ईश्क के घर में चराग़े दिल जलाये बैठे हैं
तब से हम आग के दरिया में नहाये बैठे हैं
ज़माने की झूठी तसल्ली हमें गवारा नहीं
अपने ज़ख्म अपने सीने से लगाये बैठे हैं
जाने किस पल बुत में दिल धड़क जाए
यही सोच के पत्थर से दिल लगाये बैठे हैं
गुलबदन है छिल न जाए उसका जिस्म
महबूब के लिए हम चाँदनी बिछाए बैठे हैं
सुना है अकेले में मेरी ग़ज़ल गुनगुनाते हैं
आज उसी के लिए महफ़िल सजाये बैठे हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------
तब से हम आग के दरिया में नहाये बैठे हैं
ज़माने की झूठी तसल्ली हमें गवारा नहीं
अपने ज़ख्म अपने सीने से लगाये बैठे हैं
जाने किस पल बुत में दिल धड़क जाए
यही सोच के पत्थर से दिल लगाये बैठे हैं
गुलबदन है छिल न जाए उसका जिस्म
महबूब के लिए हम चाँदनी बिछाए बैठे हैं
सुना है अकेले में मेरी ग़ज़ल गुनगुनाते हैं
आज उसी के लिए महफ़िल सजाये बैठे हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------
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