जब भी अपना माजी देखता हूं
अपने ही सूखे ज़ख्म कुरेदता हूं
तुम सर्द मौसम की नर्म धूप हो
तुम्हारी यादों की धूप सेंकता हूं
इन सूखे हुये दरख्तों मे अक्सर
अपना मुरझाया अक्श देखता हूं
चांद सितारे मेरा दर्द समझते हैं
मै इन्हे हर रोज ख़त भेजता हूं
इन तन्हा रातों मे जब सोता हूं
खाबों के हीरे मोती समेटता हूं
मुकेश इलाहाबादी ...................
अपने ही सूखे ज़ख्म कुरेदता हूं
तुम सर्द मौसम की नर्म धूप हो
तुम्हारी यादों की धूप सेंकता हूं
इन सूखे हुये दरख्तों मे अक्सर
अपना मुरझाया अक्श देखता हूं
चांद सितारे मेरा दर्द समझते हैं
मै इन्हे हर रोज ख़त भेजता हूं
इन तन्हा रातों मे जब सोता हूं
खाबों के हीरे मोती समेटता हूं
मुकेश इलाहाबादी ...................
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