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Wednesday, 3 December 2014

जब भी अपना माजी देखता हूं

जब भी अपना माजी देखता हूं
अपने ही सूखे ज़ख्म कुरेदता हूं

तुम सर्द मौसम की नर्म धूप हो
तुम्हारी यादों की धूप सेंकता हूं

इन सूखे हुये दरख्तों मे अक्सर
अपना मुरझाया अक्श देखता हूं

चांद सितारे मेरा दर्द समझते हैं
मै इन्हे हर रोज ख़त भेजता हूं

इन तन्हा रातों मे जब सोता हूं 
खाबों के हीरे मोती समेटता हूं

मुकेश इलाहाबादी ...................

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