शहर बन चुके
कस्बे के
बेहद
पुराने मोहल्ले के
पुराने मकान की
टूटती मुंडेर वाली छत पे
जिसपे
जाड़े की धूप
चटाई सा बिछी है
उस चटाई के ऊपर
एक फटी दरी पे
असमय झुराती काया
महंगाई
आतंकवाद
बेरोजगारी
जैसी तमाम समस्याओं से
खुद को अलग कर के
धूप सेंक रहा है
वो धूप सेंकती काया
मुझे किसी तथागत (बुद्ध) से
कम नहीं लग रही है
मुकेश इलाहबदी ------------
कस्बे के
बेहद
पुराने मोहल्ले के
पुराने मकान की
टूटती मुंडेर वाली छत पे
जिसपे
जाड़े की धूप
चटाई सा बिछी है
उस चटाई के ऊपर
एक फटी दरी पे
असमय झुराती काया
महंगाई
आतंकवाद
बेरोजगारी
जैसी तमाम समस्याओं से
खुद को अलग कर के
धूप सेंक रहा है
वो धूप सेंकती काया
मुझे किसी तथागत (बुद्ध) से
कम नहीं लग रही है
मुकेश इलाहबदी ------------
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