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Tuesday, 2 February 2016

राख कुरेदता हूँ

आग
बुझ चुकी है
राख बाकी है
रह रह के
राख कुरेदता हूँ
भीतर राख से
लिपटे कुछ अंगारे शेष हैं
मुह अलाव के पास
ले जाकर फूंकता हूँ
अंगारे चमकने लगते हैं
सुर्ख सेव सा
तुम्हारे गाल याद आये
कुछ राख उड़ के
आँखों में आ गयी
गमछे से
राख और आँसू
पोंछूँगा
और अलाव की
सोंधी सोंधी गमक
में ऊँघता रहूंगा
और खाब में
देखूँगा तुम्हे
बहुत देर तक

मुकेश इलाहबदी --------







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