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Thursday, 2 February 2017

तमाम रस्ते थे मेरे ज़ानिब मगर

तमाम रस्ते थे मेरे ज़ानिब मगर
रुके थे राह में, तेरी खातिर  मगर

कि जाने कब ख्वाब में तू जा जाये
कुछ यही सोच, न सोये फिर मगर

जनता हूँ तेरी सोच में मैं हूँ ही नहीं
मेरी रग रग में शामिल है तू मगर

मुकेश इलाहाबादी ------------------

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