रोज़ रोज़ की आपा धापी थका देती है
कई बार अपनों को भी भुला देती है
हंसना खेलना तो चाहते हैं सब,पर
कि ज़िंदगी है अक्सरहाँ रुला देती है
तुम भले उकेर आओ पत्थर पे नाम
वक़्त की आँधी सब कुछ मिटा देती है
फूलों की सेज़ पे सोने वालों को भी
मौत ख़ाक के बिस्तर पे सुला देती है
शब भर तो तेरे ख्वाब सोने नहीं देते
शुबो होते ही अलार्म घड़ी जगा देती है
मुकेश इलाहाबादी ------------------
कई बार अपनों को भी भुला देती है
हंसना खेलना तो चाहते हैं सब,पर
कि ज़िंदगी है अक्सरहाँ रुला देती है
तुम भले उकेर आओ पत्थर पे नाम
वक़्त की आँधी सब कुछ मिटा देती है
फूलों की सेज़ पे सोने वालों को भी
मौत ख़ाक के बिस्तर पे सुला देती है
शब भर तो तेरे ख्वाब सोने नहीं देते
शुबो होते ही अलार्म घड़ी जगा देती है
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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