एक
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तुम
नदी नहीं हो
मै भी समुंदर नही हूँ
फिर क्यूँ
डूबती जा रही
नाव,
नहीं
सम्भलते
जीवन के पाल
दो
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तुम
नदी नहीं हो
फिर क्यूँ तुझसे हिल मिल
मै हो जाता हूँ
तजा दम
तीन
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वही
बादल तो तुमको भी
आपूरित करते हैं जल से
और तुम बन जाती हो
नदी मीठे पानी की
वही
बादल तो मुझपे भी बरसते हैं
वही मीठे पानी की नदी
मुझे आपूरित करती है
फिर भी 'मै कितना खारा ?
चार
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नदी
तुम मेरे प्रेम में
अपने उद्गम को छोड़
तमाम जंगल पर्वत
बाधाओं को पार करती रही
मै,
समंदर तुम्हारे लिए
तिल भर भी न हिला अपने दर से
सिर्फ और सिर्फ अहंकार वश
राह ताकता रहा तुम्हारे आने की
तुम्हारे समर्पण की
तुम आती हो
हरहरा के समां जाती मुझमे
समां जाती हो मुझमे
पा जाती हो सर्वस
जब की मै वहीं का वहीं रह जाता हूँ
मीठे जल को तरसता
और और नदियों की राह ताकता
हे नदी ! तुम्हारे प्रेम व समर्पण को नमन
मुकेश इलाहाबादी -------
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