किसी
दिन सुबह मै आँख खोलूं
तुम 'जाड़े की नर्म धूप सा
उतर आओ खिड़की से मेरे कमरे में
और बिछ जाओ बिस्तर पे
और मै तम्हे नर्म -गर्म लिहाफ सा
ओढ़ कर फिर से सो जाऊँ दिन भर के लिए
खिड़की पे परदे डाल के
(सोचो ! ऐसा हो तो कैसा हो ? मेरी सुमी )
मुकेश इलाहाबादी -------------------------
दिन सुबह मै आँख खोलूं
तुम 'जाड़े की नर्म धूप सा
उतर आओ खिड़की से मेरे कमरे में
और बिछ जाओ बिस्तर पे
और मै तम्हे नर्म -गर्म लिहाफ सा
ओढ़ कर फिर से सो जाऊँ दिन भर के लिए
खिड़की पे परदे डाल के
(सोचो ! ऐसा हो तो कैसा हो ? मेरी सुमी )
मुकेश इलाहाबादी -------------------------
No comments:
Post a Comment