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Tuesday, 25 July 2017

इंतज़ार

हमने कभी भी
जीने मरने की 
कसमें खायीं नहीं थीं
न ही वादे किये  थे........

न ही नौका विहार किया
चाँदनी रातों में
और ,न ही कॉफी हाउस के
कोने वाली मेज पर
इंतज़ार किया था कभी
एक दूसरे का.......

और .... हाँ...
खुश्बू  में लिपटे ख़त भी
नहीं लिखे थे कभी
हम दोनों ने.......

तुम अपनी दुनिया में खुश थीं
और मैं अपनी दुनिया में
फिर ....भी क्यूँ ?
भीड़ में आते ही तुम्हें खोजता रहता हूँ
कहीँ ये प्यार तो नही था .....

जो न आँखों से बयां कर सके थे हम
न ज़ुबा ही गुनगुना सकी थी......

फिर इन आँखों को
आज भी ..क्यूँ इंतज़ार है 
तुम्हारा...........।।


 मुकेश इलाहाबादी -----------

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