वह,
रह -रह कर
चली जाती है
मौन के कोटर में
बुदबुदाती रहती है
देर तक कागज़ पे
फिर अचानक आक्रामक हो कर
कागज़ को अपने ही हथेलियों के बीच
तुड़ी-मुड़ी कर के फेंक देती है
वहीं कोने में
फिर देर तक उन टुडे मुड़े कागज़ के
अल्फ़ाज़ों से रिस्ता रहता है लहू
और वह सुबकती रहती है
देर तक
अपने ही बनाये मौन के कोटर में
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
रह -रह कर
चली जाती है
मौन के कोटर में
बुदबुदाती रहती है
देर तक कागज़ पे
फिर अचानक आक्रामक हो कर
कागज़ को अपने ही हथेलियों के बीच
तुड़ी-मुड़ी कर के फेंक देती है
वहीं कोने में
फिर देर तक उन टुडे मुड़े कागज़ के
अल्फ़ाज़ों से रिस्ता रहता है लहू
और वह सुबकती रहती है
देर तक
अपने ही बनाये मौन के कोटर में
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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