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Tuesday, 5 September 2017

अँधेरा बहुत है, सन्नाटा बहुत है

अँधेरा बहुत है, सन्नाटा बहुत है
शह्र  की आँख में वीराना बहुत है

छाँव भी यही है इतिहास भी यही
गाँव का ये बरगद पुराना बहुत है

हैं जगमग मॉल,जगमग इमारतें  
फिर भी बस्ती में, अँधेरा बहुत है

बहू -बेटा है पोता है फिर क्या ग़म
क्यूँ बूढा रात भर कराहता बहुत है

मुकेश इक बात समझ नहीं आती
क्यूँ उदास ग़ज़लें लिखता बहुत है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

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