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Friday, 29 December 2017

कंही जाऊँ, कंही भी आऊं जी,कंही नहीं बहलता

कंही जाऊँ, कंही भी आऊं जी,कंही नहीं बहलता
क्या करूँ तेरे सिवाय कंही और जी नहीं लगता
इक तू ही तो है जो जिससे कह लेता हूँ सब कुछ
क्या करूँ कोई और मेरा हाले दिल नहीं समझता
है इक क़तरा आब के लिए रूह प्यासी क्या करूँ
दरिया झील समंदर सूखे सावन भी नहीं बरसता
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

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