कोई हसीन मंज़र देखा हो, याद नहीं आता
आँखों में अब कोई हसीन ख्वाब नहीं आता
सुर्ख से नीला व तासीर से ठण्डा हो गया है
कित्ता भी खौलाओ लहू में उबाल नहीं आता
न जिस्म में कोई हरकत है न रूह में जान
मै ज़िंदा हूँ ? अब तो ये भी याद नहीं आता
ज़ुल्म सहने की ऐसी आदत हो चुकी है कि
मेरा भी कोई वज़ूद है ये ख़याल नहीं आता
मुकेश इलाहाबादी -------------------------
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