ईश्क़ एक जुंवा है -
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जब ,
कभी फुरसत में होता हूँ
तुम्हारी यादों के पत्ते फेंटने लगता हूँ
तब मुझे ऐसा लगने लगता है
जैसे मै आज भी तुम्हारे साथ
तास के खेल खेल रहा हूँ
कभी (फलास) तीन पत्ती , कभी रमी
तो कभी दहला पकड़
पर हर बार मै ही हारता हूँ
तुम ही जीतती हो
कारण - तीन पत्ती में
ब्लफ मै खेल नहीं पाता
और पत्ते मेरे पास आते नहीं
लिहाज़ा हर बाजी तुम जीत जातीं
और तुम खिलखिला के हँसती
कई बार मै खिसिया कर रह जाता
एक बार मेरे पास - तीन गुलाम आये
मै बहुत खुश था - कि ये बाजी तो मै ज़रूर जीतूंगा
मै चाल पे चाल चलता जा रहा था
और तुम भी चाल पे चाल चलती जा रहीं थी
हार कर मैंने ही पत्ते शो कराये थे
तुम्हारे पास उस बार - तीन बेग़म आयी थी
और तुम उस बार भी जीत गईं थी
फिर मैंने कहा ऐसा करो अब तीन पत्ती नहीं रमी खेलो
तुम राजी हो गयी थी
पर जब तुम रमी के खेल में रमी थी - उस वक़्त
मै तुम्हारी मोहक मुस्कान - सुनहरे बालों और
गोरे - गदबदे गालों में रमा था
लिहाज़ा फिर मै हार गया और तुम जीत गईं थी
तुम ज़ोर ज़ोर खिलखिला रही थी
तो तुमने कहा -
चलो " दहला पकड़" खेलते हैं ?
तो मैंने शरारतन कहा था
"नहीं दहला पकड़ " मुझे नहीं आता
"एक दूजे को पकड़ने वाला खेल खेलना है तो खेलो "
तब तुम मुँह चिढ़ा के भाग गयी थी
एक बार फिर से खिलखिलाती हुई
और फिर उसके बाद मै वही गुमशुम सा बैठा
न जाने कितनी देर
तुम्हारी मुस्कान और ख़ूबसूरती, मीठी - मीठी बातों
व शैतानियों के बिखरे पत्तों को समेटता रहा था
और फिर तुम्हारी यादों के ताश के पत्ते समेट लाया था
उन्हें ही अक्सर खोल कर -
बार - बार तुम्हारे साथ खेलने लगता हूँ
कभी - तीन -पत्ती तो कभी रमी तो कभी दहला पकड़
तुम मेरे जीवन के इश्क़ की वो बाजी हो जिसे हार कर भी आज खुश हूँ
उम्मीद है तुम भी खुश होगी - जंहा भी होगी -
मेरी प्यारी - सुमी
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------------
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जब ,
कभी फुरसत में होता हूँ
तुम्हारी यादों के पत्ते फेंटने लगता हूँ
तब मुझे ऐसा लगने लगता है
जैसे मै आज भी तुम्हारे साथ
तास के खेल खेल रहा हूँ
कभी (फलास) तीन पत्ती , कभी रमी
तो कभी दहला पकड़
पर हर बार मै ही हारता हूँ
तुम ही जीतती हो
कारण - तीन पत्ती में
ब्लफ मै खेल नहीं पाता
और पत्ते मेरे पास आते नहीं
लिहाज़ा हर बाजी तुम जीत जातीं
और तुम खिलखिला के हँसती
कई बार मै खिसिया कर रह जाता
एक बार मेरे पास - तीन गुलाम आये
मै बहुत खुश था - कि ये बाजी तो मै ज़रूर जीतूंगा
मै चाल पे चाल चलता जा रहा था
और तुम भी चाल पे चाल चलती जा रहीं थी
हार कर मैंने ही पत्ते शो कराये थे
तुम्हारे पास उस बार - तीन बेग़म आयी थी
और तुम उस बार भी जीत गईं थी
फिर मैंने कहा ऐसा करो अब तीन पत्ती नहीं रमी खेलो
तुम राजी हो गयी थी
पर जब तुम रमी के खेल में रमी थी - उस वक़्त
मै तुम्हारी मोहक मुस्कान - सुनहरे बालों और
गोरे - गदबदे गालों में रमा था
लिहाज़ा फिर मै हार गया और तुम जीत गईं थी
तुम ज़ोर ज़ोर खिलखिला रही थी
तो तुमने कहा -
चलो " दहला पकड़" खेलते हैं ?
तो मैंने शरारतन कहा था
"नहीं दहला पकड़ " मुझे नहीं आता
"एक दूजे को पकड़ने वाला खेल खेलना है तो खेलो "
तब तुम मुँह चिढ़ा के भाग गयी थी
एक बार फिर से खिलखिलाती हुई
और फिर उसके बाद मै वही गुमशुम सा बैठा
न जाने कितनी देर
तुम्हारी मुस्कान और ख़ूबसूरती, मीठी - मीठी बातों
व शैतानियों के बिखरे पत्तों को समेटता रहा था
और फिर तुम्हारी यादों के ताश के पत्ते समेट लाया था
उन्हें ही अक्सर खोल कर -
बार - बार तुम्हारे साथ खेलने लगता हूँ
कभी - तीन -पत्ती तो कभी रमी तो कभी दहला पकड़
तुम मेरे जीवन के इश्क़ की वो बाजी हो जिसे हार कर भी आज खुश हूँ
उम्मीद है तुम भी खुश होगी - जंहा भी होगी -
मेरी प्यारी - सुमी
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------------
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