साँझ हुई दिन के पहलू में उजाला बाकी नहीं
मेरे सीने में अब कोई भी तमन्ना बाकी नहीं
कुछ आदत है कुछ मर्ज़ी है कुछ शौक है मेरा
कह रहा हूँ ग़ज़लें वर्ना कुछ सुनाना बाकी नहीं
तफरीहन चल रहा हूँ चलता ही रहूँगा मुकेश
कंही पहुंचना नहीं कोई भी मंज़िल पाना नहीं
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
मेरे सीने में अब कोई भी तमन्ना बाकी नहीं
कुछ आदत है कुछ मर्ज़ी है कुछ शौक है मेरा
कह रहा हूँ ग़ज़लें वर्ना कुछ सुनाना बाकी नहीं
तफरीहन चल रहा हूँ चलता ही रहूँगा मुकेश
कंही पहुंचना नहीं कोई भी मंज़िल पाना नहीं
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
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