मैंने
शायद ही कभी
अपने पिता की रीढ़ को
सीधी और तनी देखा है
सिवाय खाट पे सीधे लेटने के
बाकी हमेसा झुके हुए ही पाया
कभी ज़िम्मेदारियों के बोझ से
कभी महंगाई के बोझ से
तो कभी बड़ी होती पुत्रियों और
बेरोज़गार पुत्र को देख कर
कई बार खीझ भी जाता
पिता सीधे और तन के क्यों नहीं चलते
किन्तु पिता सिर्फ मुस्कुरा के रह जाते
और कुछ न कहते
पर मेरी भी रीढ़ उस दिन थोड़ा झुक गयी
जिस दिन बाप बना
बाकी उस दिन झुक गयी जिस दिन
जिस दिन पिता की अर्थी उठाई थी
और अब मै भी झुकी रीढ़ का हो गया हूँ
और अब मेरा बेटा मेरे सामने तन के चलता है
सीधी रीढ़ से
मुकेश इलाहाबादी --------------------
शायद ही कभी
अपने पिता की रीढ़ को
सीधी और तनी देखा है
सिवाय खाट पे सीधे लेटने के
बाकी हमेसा झुके हुए ही पाया
कभी ज़िम्मेदारियों के बोझ से
कभी महंगाई के बोझ से
तो कभी बड़ी होती पुत्रियों और
बेरोज़गार पुत्र को देख कर
कई बार खीझ भी जाता
पिता सीधे और तन के क्यों नहीं चलते
किन्तु पिता सिर्फ मुस्कुरा के रह जाते
और कुछ न कहते
पर मेरी भी रीढ़ उस दिन थोड़ा झुक गयी
जिस दिन बाप बना
बाकी उस दिन झुक गयी जिस दिन
जिस दिन पिता की अर्थी उठाई थी
और अब मै भी झुकी रीढ़ का हो गया हूँ
और अब मेरा बेटा मेरे सामने तन के चलता है
सीधी रीढ़ से
मुकेश इलाहाबादी --------------------
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