कहीं आया भी नहीं कहीं गया भी नहीं
मुद्दत हुई हँसा भी नहीं रोया भी नहीं
वक़्त ने मौका न दिया ऐसा भी नहीं
मै तुझको भूल गया हूँ ऐसा भी नहीं
तेरे शहर आया था तुझसे ही मिलने
मुझे यहाँ और कोइ काम था भी नहीं
तुम्ही बेवज़ह रूठ जाते रहे हो हमसे
हमने तो चाहा भी कुछ कहा भी नहीं
ख़त मेरा ले के सिरहाने रख लिया
ख़त को पढ़ा भी नहीं फाड़ा भी नहीं
मुकेश इलाहाबादी ----------------
बहुत उम्दा ग़ज़ल।
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