जिस्म से रूह तक महकती है
इत्र की नदी फूलों की कश्ती है
हैं सोने के बाल चाँदी का बदन
परी है रात खाबों में उतरती है
अदा की चूनर हया का दुशाला
मोम से भी मुलायम लगती है
फ़रिश्ते भी देखने उतर आते हैं
बेनकाब घर से जब निकलती है
कुछ भी पूछो खामोश रहती है
कभी मुस्काती है कभी हंसती है
मुकेश इलाहाबादी ------------
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