तुझे,
एक बार देखने से
जी कहाँ भरता है ?
हज़ार बार देखूं
तो भी कम लगता है
तेरी आँखों में है
जाने कौन सा जादू
इस जादू में ही
खोये - खोये रहने का
मन करता है
तू हँस देती है
तो महुआ झरता है
जिसकी मस्ती में
सारा आलम
हर वक़्त करता है
ओ ! मेरी सुमी
ओ ! मेरी महुआ
तू मेरे सामने रहे
और मै यूँ ही नज़्म लिखता रहूँ
जाने क्यूँ बस यही मन करता है
मुकेश इलाहाबादी -----
No comments:
Post a Comment