मै इक आइना चटका हुआ हूँ
या पत्ता डाल से टूटा हुआ हूँ
कोई तो हो समेट ले मुझको
रेज़ा- रेज़ा मै बिखरा हुआ हूँ
जिस्म मेरा ग़म का मकबरा
फ़िलहाल वहीं ठहरा हुआ हूँ
यूँ तो नशे की कोई लत नहीं
तेरे ही इश्क़ में बहका हुआ हूँ
कोई तो मेरे घर का पता बता
इक मुसाफिर भटका हुआ हूँ
मुकेश इलाहाबादी ----------
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