पत्थर भी अब आईना होना चाहता है
इक सूरत आँखों में बसाना चाहता है
इक उम्र गुजर गयी आवारगी करते
मुहब्बत का इक घर बनाना चाहता हूँ
हजारहां ज़ख्म मेरे सीने में दफ़न हैं
किसी अपने को दिखाना चाहता हूँ
फुर्सत मिल जाए जो तुझे औरों से
तुझे अपनी नज़्म सुनाना चाहता हूँ
कोई दहकता हुआ आफ़ताब निकले
दर्द के दरिया को सुखाना चाहता हूँ
मुकेश इलाहाबादी -------------------
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