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Wednesday, 4 April 2012

चिरकाल तक तुम्हे याद करते हुए

चिरकाल तक तुम्हे याद करते हुए
बैठा रह सकता हूँ ,
चट्टान बन जाने की हद तक
और, यंहा तक की,
इंतज़ार के अनंत अनत युगों तक
 
धुप छाह अंधड़ पानी सहते हुए
बिखर सकता हूँ ,
बह जाने को नदी नाले से होते हुए
नीले समुद्र में रेत बन कर
ताकि कभी तुम उधर से गुजरो
तो तुम्हारे पांवों का स्पर्श पा सकूं
 
मुकेश इलाहाबादी -------------------

1 comment:

  1. क्या खूब ख्याल है......! ग़ालिब, मीर की भी आँखें नम हो जाएँ इसे पढ़ कर ....!

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