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Wednesday, 17 July 2013

इन दरो दीवारों को तुम घर कहते हो

इन दरो दीवारों को तुम घर कहते हो
हाथ की लकीरों को मुकददर कहते हो

कयूं उदास ऑखों का पानी नही दिखता
तुम न जाने किसको समन्दर कहते हो ?

अजनबी की तरह रहता रहा उम्र भर
तुम तो उसको भी हमसफर कहते हो

कल भी सरे आम कली मसली गयी
तुम इस हादसे को भी खबर कहते हो

पिला रहा हूं तुम्हे जाम ऐ मुहब्बत इस
आब ए हयात को तुम जहर कहते हो

मुकेष इलाहाबादी ....................

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