इन दरो दीवारों को तुम घर कहते हो
हाथ की लकीरों को मुकददर कहते हो
कयूं उदास ऑखों का पानी नही दिखता
तुम न जाने किसको समन्दर कहते हो ?
अजनबी की तरह रहता रहा उम्र भर
तुम तो उसको भी हमसफर कहते हो
कल भी सरे आम कली मसली गयी
तुम इस हादसे को भी खबर कहते हो
पिला रहा हूं तुम्हे जाम ऐ मुहब्बत इस
आब ए हयात को तुम जहर कहते हो
मुकेष इलाहाबादी ....................
हाथ की लकीरों को मुकददर कहते हो
कयूं उदास ऑखों का पानी नही दिखता
तुम न जाने किसको समन्दर कहते हो ?
अजनबी की तरह रहता रहा उम्र भर
तुम तो उसको भी हमसफर कहते हो
कल भी सरे आम कली मसली गयी
तुम इस हादसे को भी खबर कहते हो
पिला रहा हूं तुम्हे जाम ऐ मुहब्बत इस
आब ए हयात को तुम जहर कहते हो
मुकेष इलाहाबादी ....................
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