यादों को बिखेर के बैठा हूं
अपने को समेट के बैठा हूं
चॉद हमसे बेवजह खफा है
अब अंधेरा लपेट के बैठा हूं
पैरों की जमीन न खिसके
दरो दीवार टेक के बैठा हूं
न जाने कौन डंक मार दे
जगह खूब देख के बैठा हूं
लोग सूरज लिये फिरते हैं
अपनी छांह छेक के बैठा हूं
मुकेष इलाहाबादी ........
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