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Friday, 7 February 2014

सुना है मैने वसंत आ गया है


सुना है मैने वसंत आ गया है। पेडों पे नये पत्ते बौर और आम्रकुजों मे अमराइंया आ गयी है। कोयलें कभी मुंडेर  पे तो कभी डालियों पे कुहुकने लगी हैं। विरहणियां सजन के बिना एक बार फिर हुमगने लगी हैं। सखियां हाथों मे मेहंदी लगा के झूला झूलने लगी हैं। कवियों के मन मे भावों के नव पल्लव लहलाहाने लगे हैं। हवाएं इठलाने लगी हैं। घटाएं मचलने लगी है। साजिंदे अपने साज सजाने लगे हैं गवइये कभी राग विरह तो कभी राग सयोंग गाते हुए कभी उठान पे तो कभी सम पे आने लगे हैं। हर तरफ लोग हर्षों उल्लस मनाने लगे है। ऐसा ही सब कुछ पढने को मिल रहा है किताबों मे कविताओं मे किस्सों मे कहानियों मे। लिहाजा मै इसी सच को ढूंढता हूं इस भीड भरे और दहशत से सहमे षहर की सडकों मे गलियों मे बाजारों मे खेल के मैदानों मे गावं के खतों मे खलिहानों मे कुजों मे अमराइयों मे। मगर मुझ ऐसां हंसता हुआ खिलखिलाता हुआ गाता हुआ वसंत कही नही मिला।
लिहाजा एक बार फिर उदास मना अपने वीराने मे आ बैठा हूं अपने विचारों के घोडे दौडाने लगा हूं। इतिहास के पन्नो मे वसंत खोजने लगा हूं। उस वसंत त्रतु को जो शीत ऋतू  के प्रस्थान और ग्रीस्म त्रतु के आगमन के संधिं काल मे होती है। जब सारी प्रक्रति नये उल्लस मे होती है। वही वसंत ऋतु जिसका गुणगान हमाने आदि कवियांे से लकेर आधुनिक कविजत तक करते न थकेते थे। वही वसंत त्रतु जिसे मधुरितु, ऋतुराज, कुसुमाकर भी कहा जाता है। जिसे कवि ‘देव’ ने तो कामदेव का शिशु कहा है। जिसे प्रक्रिति विभिन्ना खेल खिलाती रहती है। वही वसंत ऋतु जिसके आगमन का स्वागत भारतीय चेतना ज्ञान और विदया की देवी सरस्वती की अभ्यर्थना करके करती है। और यह अकारण नही था। कारण साफ था। कि जव वसंत आता है तो लगता है मानो पूरी की पूरी प्रकिति पुरुष के साथ केलि कर रही हो। रास रंग मना रही हो। जड ही नही चेतन भी पुलकित से लगते है। मानो कामदेव और रति न्रत्य कर रहे हों। लिहाजा इसी कामदेव को विदया के दवारा ज्ञान के दवारा संतुलित रख के अध्यात्म के नये आयाम को देखने सुनने समझने की भावना रहती थी। पर अब तो काम मुख्य जान पडता है और ज्ञान गौडं।
और ,,, सचमुच वो जमाना था वसंत ऋतु आती थी धरती धानी चुनर ओढ इठलाती रहती थी किसानो के दिल लहलहाती फसलें देख देख के हुलसते रहते थे। हवाऐं मंद मंद सूरज की हल्की हल्की गमक से ठुनकती रहती थी। सखियां इठलाती मचलती नहरों पे पोखरों पे नदियो और तालाब के किनारे ठिठोली करती रहती थी । बूढे किसान हुक्के की गुडगुडाह मे बीते दिनो को अपनी मोतियाबिंदी ऑखों से फिर फिर हरयिाते रहते थे। बूढी औरतें फागुन की तैयारी लोक गीत गाते हुऐ अंगनाई मे मे पापड बडी तोडती रहती थीं। बच्चे बाग बगैचों मे छुपा छुपउवल खेलते हुए कच्चे पक्के फल तोडते मिल जाते थै। यूवा दिल अपने साथी को निहारते हुये मनाते हुए कभी धान के खेतों मे तो कभी गांव के सीवान पे मिलते मिलाते दिख जाते थे। विरहणियां डाकिया को निहरती थी कि पिया नही तो कम से कम पिया को संदेसा तो आता ही होगा। जिसमे वसंत पे नही तो कम से कम फागुन पे आने का वादा तो किया ही होगा। हर तरफ हषों उल्लास का मौसम व माहौल बिखरा होता था।
जाने कब मै अपने विचारों मे डूबता उतराता निकल पडता हूं वो अमराइंयां ढूंडने जो अब फार्म हाउस मे बदल थां जहां गोरियां तो मिली प्रेमी भी मिले हैं पर अब वे फागुन के गीत नही राक गीत गाते हुये मिले। मुनहार की जगह काम का ज्वार मिला।
नदी के किनारे तो मिले पर वो सूने सूने मिलें गांव का पनघट तो मिला पर वो चूडी खनकाती गोरियां और जल के घडे न मिले। गांव भी गलियों मे भी बच्चे तो मिले पर वे अब नेट पे व मोबाइल पे मिले उनका वो निस्छल हुछदंग न मिला। भौजांइयं तो मिली पर उनमे सुघडता तो मिली पर चुहल पन न मिला।

ये सब देखता हूं तो सोचता हूं कि न जाने किन ग्रहों ने इन उत्साहों पे इन पर्वों  पे अपनी वक्र गति डाल दी है कि जमाना न जाने किस विकास की अंधी गली मे दौडने लगा भागने लगा पस्चिम का अंधानुकरण करने लगा अपने पर्वो त्यौहारों को भूल कर वसंतोत्सब की जगह वैलेंटाइन डे लेने लगा है। शहर  के चकाचौंध अंधेरे मे डूब सिर्फ और सिर्फ किताबो मे कविताओं मे नाटक और चित्रपटों मे वसंत का त्यौहार खाजने लगा है। और खुश्क होठों पे जीभ फिरा के प्यास को झूठी तसल्ली देने लगा है।
खैर जो भी हो किताबों मे ही सही कविताओं  मे ही सही पर चलो अभी वसंत  ज़िंदा तो है सांसे तो ले रहा है। और न जाने कब फिर ग्रहों की गति फिर बक्र से मार्गी हो और यह वसंत रितु एक बार फिर से हंसने लगे खिलखिलाने लगे। मुस्कुराने लगे। 
इन्ही कामनाओं के साथ इस वसंत रितु के ऋतु ढेरो शुभकामनाऐं

मंकेश  इलाहाबादी
05.02.2014

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