शब्द
तोड़ देते हैं
गहन मौन को भी
अपने पदचाप से
हरहरा कर
उलीच देते हैँ खुद को
कागज़ के कैनवास पे
या कि,
राख की ढेरी मे
सुलगते रहते हैं
देर तक
लगभग बुझ चुके
अलाव मे
पर कभी
धू - धू करके
नहीं जलते
दावानल सा
या कि
फट नहीं पड़ते
किसी ज्वालामुखी सा
शायद शब्दों की
कोई सीमा रेखा / मज़बूरी हो
जिसे हम न समझ पा रहे हों
मुकेश इलाहाबादी -------------
तोड़ देते हैं
गहन मौन को भी
अपने पदचाप से
हरहरा कर
उलीच देते हैँ खुद को
कागज़ के कैनवास पे
या कि,
राख की ढेरी मे
सुलगते रहते हैं
देर तक
लगभग बुझ चुके
अलाव मे
पर कभी
धू - धू करके
नहीं जलते
दावानल सा
या कि
फट नहीं पड़ते
किसी ज्वालामुखी सा
शायद शब्दों की
कोई सीमा रेखा / मज़बूरी हो
जिसे हम न समझ पा रहे हों
मुकेश इलाहाबादी -------------
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