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Tuesday, 6 May 2014

शब्द तोड़ देते हैं

शब्द

तोड़ देते हैं
गहन मौन को भी
अपने पदचाप से

हरहरा कर
उलीच देते हैँ खुद को
कागज़ के कैनवास पे

या कि,
राख की ढेरी मे
सुलगते रहते हैं
देर तक
लगभग बुझ चुके
अलाव मे 

पर कभी

धू - धू करके
नहीं जलते
दावानल सा
या कि
फट नहीं पड़ते
किसी ज्वालामुखी सा 

शायद शब्दों की
कोई सीमा रेखा / मज़बूरी हो
जिसे हम न समझ पा रहे हों

मुकेश इलाहाबादी -------------

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