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Monday, 30 June 2014

ऐसा नहीं कि सिर्फ उजाले मिले

ऐसा नहीं कि सिर्फ उजाले मिले
किले में कई अँधेरे तहखाने मिले

महफ़िलें सज़ती रहीं रास रंग की
वहाँ भी कई साज़ सिसकते मिले

बुलंद दरवाज़ा ऊंची मेहराबें थीं
मगर वहाँ बंद सारे दरीचे मिले

किताब ऐ  दिल भी पढ़ के देखा
वहाँ भी हमको झूठे फसाने मिले

जिन्हे हम फरिस्ता समझते रहे
वे भी हमारी तरह कमीने मिले

मुकेश इलाहाबादी ------------------

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