वो रेत् का घरौंदा बनाती थी
लहरें आ के मिटा जाती थी
नीचे सजना खड़ा होता,और
वो छत पर बाल सुखाती थी
गोरा - गोरा चाँद सा मुखड़ा ,,
उसपे बिंदी चटक सजाती थी
जब - जब प्यार जताऊं मै
वो कितना तो शरमाती थी
जब अपनी ग़ज़ल सुनाता
वह मंद - मंद मुस्काती थी
मुकेश इलाहाबादी --------------
लहरें आ के मिटा जाती थी
नीचे सजना खड़ा होता,और
वो छत पर बाल सुखाती थी
गोरा - गोरा चाँद सा मुखड़ा ,,
उसपे बिंदी चटक सजाती थी
जब - जब प्यार जताऊं मै
वो कितना तो शरमाती थी
जब अपनी ग़ज़ल सुनाता
वह मंद - मंद मुस्काती थी
मुकेश इलाहाबादी --------------
No comments:
Post a Comment