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Tuesday, 1 July 2014

वो रेत् का घरौंदा बनाती थी

वो रेत् का घरौंदा बनाती थी
लहरें आ के मिटा जाती थी

नीचे सजना खड़ा होता,और
वो छत पर बाल सुखाती थी

गोरा - गोरा चाँद सा मुखड़ा ,,
उसपे बिंदी चटक सजाती थी

जब - जब प्यार जताऊं मै 

वो कितना तो शरमाती थी

जब अपनी ग़ज़ल सुनाता
वह मंद - मंद मुस्काती थी

मुकेश इलाहाबादी --------------

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