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Saturday, 23 August 2014

दरवाज़े पे जा के देख आये हैं

दरवाज़े पे जा के देख आये हैं
हर आहट पे लगे वो आये हैं
हर बार उनको न पाकर के
मायूस हो कर लौट आये हैं

तो समझो मुहब्बत हो गयी है

जब भी उनका ज़िक्र आये है
लबों पे मुस्कराहट फ़ैल जाए है
ज़िक्र किसी और का होता हो
बात मेहबूब की निकल जाए है

तो समझो मुहब्बत हो गयी है

रात- रत भर नींद न आये है
दिन बेख्याली में गुज़र जाए है
जहाँ में रूसवाइयां होने लगे, तेरा
नाम उसके नाम से जुड़ जाए है

तो समझ लो मुहब्बत हो गयी है
 
मुकेश इलाहाबादी -----------

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