अहर्निश
अपना सतरंगी आँचल ओढ़े
घूमती है
पृथ्वी
अपनी धूरी पे
सूरज के आकर्षण में बिंधी-बिंधी
इस उम्मीद पे
शायद किसी दिन सूरज
उसकी आगोश में आ गिरे
या फिर वो अपने सूरज
की बाँहों में जा पंहुचे
मगर,
पगला सूरज है
बदहवास फिरता है
न जाने और किस पृथ्वी की खोज में
मुकेश इलाहाबादी ----------------
अपना सतरंगी आँचल ओढ़े
घूमती है
पृथ्वी
अपनी धूरी पे
सूरज के आकर्षण में बिंधी-बिंधी
इस उम्मीद पे
शायद किसी दिन सूरज
उसकी आगोश में आ गिरे
या फिर वो अपने सूरज
की बाँहों में जा पंहुचे
मगर,
पगला सूरज है
बदहवास फिरता है
न जाने और किस पृथ्वी की खोज में
मुकेश इलाहाबादी ----------------
No comments:
Post a Comment