वह
उसके द्वार तक गया
कुछ देर ठहरा
कुछ सोचा
फिर
बरसों से बंद दरवाज़े को
बिना सांकल खटकाये
लौट आया
अब वह
सिगरेट के धुंए में
गौर से देख रहा है खुद को विलीन होते हुए
न जाने क्या सोचते हुए
मुकेश इलाहाबादी -------------
उसके द्वार तक गया
कुछ देर ठहरा
कुछ सोचा
फिर
बरसों से बंद दरवाज़े को
बिना सांकल खटकाये
लौट आया
अब वह
सिगरेट के धुंए में
गौर से देख रहा है खुद को विलीन होते हुए
न जाने क्या सोचते हुए
मुकेश इलाहाबादी -------------
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