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Saturday, 8 July 2017

ऊँचे
ऊँचे देवदार और चिनार के
दरख्तों, घनी झाड़ियों, झरनो के बीच
एक मीठे पानी  की झील बहती थी
बिलकुल तुम्हारी आँखों की तरह
उस झील का पानी निस्तरंग बहता दिन में
रात - हौले - हौले बहता
झील में सुनहरी मछलियां मचलती रहती
सांझ होते ही उस झील में
अससमाँ से गुलाबी परिधान पहने चँदा
उतर आता और झील से एक खूबसूरत
जलपरी निकलती फिर दोनों देर तक क्रीड़ा करते
किलोल करते उन खूबसूरत वादियों में
जिसे देख
आखेटक अपना आखेट करना भूल जाते
वादी की गिलहरी,
फुदकना छोड़ चुप हो जाती
कोयल अपनी डाल पे सांस रोक बैठ जाती
हिरन कुलांचे भरना छोड़ देते
हवाएं बहना भूल जाती
अगर बहती भी तो मलय गंध के साथ
आकाश अपनी मौन स्वीकृत दे देता
धरती मगन हो इस किलोल को देखती
ऐसा युगों युगों से होता रहा है
और शायद होता रहता
किन्तु
एक दिन कुछ विकास पुरुष आए
इन वादियों में और उन्होंने इस वादी को
और बेहतर और खूबसूरत बनाने की ठानी
इसके लिए उन्हें बहुत सारे पेड़ काटने पड़े
बहुत सरे झरनो को सुखाना पड़ा
पर्वतों की भुजाओं और सीने पे बुलडोज़र चलाना पड़ा
कई मॉल, इमारतें और सड़कें बनानी पडी
लेकिन झील  की जलपरी जो प्रकृति और शांति प्रियता पसंद थी
ये शोरोगुल और ये पहाड़ व पेड़ों के साथ ज़्यादती पसंद नहीं आयी
और एक दिन,
वह झील छोड़ के अपने लोक में चली गयी और फिर
वापस नहीं आई,
जलपरी के जाते ही झील भी सूख गयी
सुना है अब वहां सुर्ख रेत की नदी बहती है -
ये देख चाँद बहुत उदास हुआ और रोने लगा
यंहा तक कि रोते रोते उसका गुलाबी बदन सफ़ेद हो गया
तब से ही वो मौत सी सफेदी लिए झंगोला पहने आसमान  में टंगा है
तभी से चाँद ज़मीन पे नहीं आता
और चाँद हमें सफ़ेद नज़र आता है

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

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