जैसे
कच्ची दोमट
मिट्टी का धेला
धीरे धीरे घुलता है
बारिस के पानी में
और पानी मटमैला मटमैला हो जाता है
मिट्टी की सोंधी सोंधी महक के साथ
बस ऐसी ही
तुम घुलती हो मुझमे
और घुलता जाता है
तुम्हारी आँखों की पुतली का
ये कत्थई रंग
सिर्फ आँखों का रंग ही क्यूँ
तुम्हारे काजल का गहरा काला
आँचल का आसमानी
गालों का गुलाबी
होंठो का मूँगिया
और तुम्हारी हंसी का दूधिया रंग
मेरे वज़ूद में घुल मिल जाते हैं
तुम्हारे स्नेह और प्रेम की बारिस में
तुम देखो न 'मै कितना रंग बिरंगा हो गया हूँ,
और रंग बिरंगी हो गयी है मेरी कविता, बिलकुल तुम्हारी तरह '
क्यूँ है न सुमी ??
देखो ! देखो, तुम हंसना नहीं
और ये मत कहना तुम ' तुम पागल हो '
मुकेश इलाहाबादी ----------------------
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