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Sunday, 17 December 2017

तेरे ख्वाबों की गलियों से गुज़रते हैं रोज़

तेरे ख्वाबों की गलियों से गुज़रते हैं रोज़
कि दरिया ऐ ईश्क़ में हम उतरते हैं रोज़ 

तमाम बेरुखी के बाद भी, न जाने क्यूँ ?
बड़ी शिद्दत से तेरा इंतज़ार करते हैं रोज़

ईश्क़ के बाग़ में टहल रहे हैं हम औ तुम
बस इक तुम्हारा ही ख्वाब देखते हैं रोज़

इनकार कर दे तो या कि इक़रार कर ले
कह दूँ ,दिल की बात यही सोचते हैं रोज़

पत्थर के बुत से है, तुमने दिल लगाया
हमसे ये बात ज़माने वाले कहते हैं रोज़

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

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