आँखों के इस खारे समंदर को क्या कहूँ
तू ही बता बिगड़े मुक़ददर को क्या कहूँ
इधर सिलता हूँ तो, उधर दरक जाती है
मुफलिसी की इस चददर को क्या कहूँ
गर दीवारों की नमी को सीलन कहते हो
तो कमरे के उधड़े पलस्तर को क्या कहूँ
मुझे तो फूलों ने भी चोट दी है अक्सर
तेरी बेरुखी के इस पत्थर को क्या कहूँ
अगर तेरी ये शोख़ अदाएँ खंज़र हैं तो
तेरी मीठी बातों के नश्तर को क्या कहूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
तू ही बता बिगड़े मुक़ददर को क्या कहूँ
इधर सिलता हूँ तो, उधर दरक जाती है
मुफलिसी की इस चददर को क्या कहूँ
गर दीवारों की नमी को सीलन कहते हो
तो कमरे के उधड़े पलस्तर को क्या कहूँ
मुझे तो फूलों ने भी चोट दी है अक्सर
तेरी बेरुखी के इस पत्थर को क्या कहूँ
अगर तेरी ये शोख़ अदाएँ खंज़र हैं तो
तेरी मीठी बातों के नश्तर को क्या कहूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
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