वो तो आदतन मुस्कुराता रहता हूँ
वर्ना ज़्यादातर तो ग़म ज़दा रहता हूँ
अपनी सारी ख्वाहिशें दफन कर के
अपने ही वज़ूद की कब्र में रहता हूँ
स्याह रातों को जब नींद नही आती
सीने के ज़ख्मों को गिना करता हूँ
वक़्त के दरिया में ख़ुद को डाल कर
अक्सरहाँ मै दूर तक बहा करता हूँ
मुझ अवारा से कोई बात नही करता
अपनी तन्हाई से बतियाया करता हूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,
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