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Saturday, 3 November 2018

मेरे अंदर एक निर्मल जल से आपूरित नदी और एक बहुत मीठे पानी का झरना बहता था

बहुत
पहले मेरे अंदर एक
निर्मल जल से आपूरित नदी और
एक बहुत मीठे पानी का झरना बहता था
बहुत दिनो तक
जिससे मेरी आँखे पानीदार और वज़ूद रसमय - रसमय दिखता था
पर वक़्त की मार से
नदी और झील दोनों सूखते चले गए, अब वहां पे रेत की नदी बहती है
इसी तरह मेरे अंदर
एक मज़बूत पहाड़ था
सीने पे तमाम फलदार पेड़ और औस्‍धियों के झाड़ हुआ करते थे
जिसपे मुहब्बत के परिंदे
चहचहाय करते थे
और ये पहाड़ बड़े से बड़े आंधी तूफान मे भी अडिग रहता
पर वक़्त की मार से
पहाड़ पहले तो
टूट टूट कर चट्टानों में तब्दील हुआ फिर
छोटी छोटी कंकरियों में
तब्दील हुआ
अब वही पहाड़
वक़्त की मार से रेज़ा रेज़ा टूट कर
रेत की नदी सा बह रहा है
यहाँ तक कि
सिर्फ नदी, झील और झील के अलावा मेरे
मन के फलक़ पे भावों के बादल भी हरहराते थे
जिसकी बारिश से रिस्तों की खेती लहलहाती थी
गाहे बगाहे कविता कहानी के रूप में कागज़ पे मुस्कुराती थी
पर वक़्त की मार ने इन
बादलों को भी सुखा दिया है
और अब मेरा पूरा का पूरा वज़ूद
इस खुले आकाश के नीचे
रेत की नदी सा बह रहा है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,

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